Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन

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शर्माजी समझ गए कि यह लोग इस समय मेरी आरजू-मिन्नत पर ध्यान न देंगे। सुमन के पास जाने के बदले वह कुएं में गिरना अच्छा समझते थे। अतएव उन्होंने अपने कर्त्तव्य का निश्चय कर लिया। वह उठे और वेग से चलती हुई गाड़ी पर से कूद पड़े। यद्यपि उन्होंने अपने को बहुत संभाला, पर रुक न सके। पैर लड़खड़ा गए और वह उल्टे हुए पचास कदम तक चले गए। कई बार गिरते-गिरते बचे, पर अंत में ठोकर खाकर गिर ही पड़े। हाथ की कुहनियों में कड़ी चोट लगी, हांफते-हांफते बेदम हो गए। शरीर पसीने में डूब गया, सिर चक्कर खाने लगा और आंखें तिलमिला गईं। जमीन पर बैठ गए। अब्दुललतीफ ने घोड़ा रोक दिया, दौड़े हुए दोनों आदमी उनके पास आए और रुमाल निकालकर झलने लगे।

कोई पंद्रह मिनट में शर्माजी सचेत हुए। दोनों महाशय पछताने लगे, बहुत लज्जित हुए और शर्माजी से क्षमा मांगने लगे। बहुत आग्रह किया कि गाड़ी पर बिठाकर आपको घर पहुंचा दें। किंतु शर्माजी राजी न हुए। उन्हें वहीं छोड़कर वह खड़े हो गए और लंगड़ाते हुए घर की तरफ चले। लेकिन अब सावधान होने पर उन्हें विस्मय होता था कि मैं फिटन से कूद क्यों पड़ा? यदि मैं एक बार झिड़ककर कह देता कि गाड़ी रोको, तो किसकी मजाल थी कि न रोकता और अगर वह इतने पर भी न मानते, तो मैं उनके हाथ से रास छीन सकता था। पर खैर, जो हुआ, वह हुआ। कहीं वह दोनों मुझे बातों में बहलाकर सुमन के दरवाजे पर जा पहुंचते, तो मुश्किल होती। सुमन से मेरी आंखें कैसे मिलतीं? कदाचित् मैं गाड़ी से उतरते ही भागता, पागलों की भाँति बाजार में दौड़ता। गऊ का वध होते तो चाहे देख सकूं, पर सुमन को इस दशा में नहीं देख सकता। बड़े-से-बड़ा भय सदैव कल्पित हुआ करता है।

इस समय उनके मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि इस दुर्घटना का उत्तरदायी कौन है? उनकी विवेचना-शक्ति पिछली बातों की आलोचना कर रही थी। यदि मैंने उसे घर से निकाल न दिया होता, तो इस भांति उसका पतन न होता। मेरे यहां से निकलकर उसे और कोई ठिकाना न रहा और क्रोध और कुछ नैराश्य की अवस्था में यह भीषण अभिनय करने पर बाध्य हुई। इसका सारा अपराध मेरे सिर है।

लेकिन गजाधर सुमन से इतना क्यों बिगड़ा? यह कोई पर्दानशीन स्त्री न थी, मेले-ठेले में आती-जाती थी, केवल एक दिन जरा देर हो जाने से गजाधर उसे कठोर दंड कभी न देता। वह उसे डांटता, संभव है, दो-चार धौल भी लगाता, सुमन रोने लगती, गजाधर का क्रोध ठंडा हो जाता, वह सुमन को मना लेता, बस झगड़ा तय हो जाता। पर ऐसा नहीं हुआ, केवल इसीलिए कि विट्ठलदास ने पहले से ही आग लगा दी थी। निस्संदेह सारा अपराध उन्हीं का है। मैंने भी सुमन को घर से निकाला तो उन्हीं के कारण। उन्होंने सारे शहर में बदनाम करके मुझे निर्दयी बनने पर विवश किया। इस भांति विट्ठलदास पर दोषारोपण करके शर्माजी को बहुत धैर्य हुआ। इस धारणा ने पश्चात्ताप की आग ठंडी की, जो महीनों से उनके हृदय में दहक रही थी। उन्हें विट्ठलदास को अपमानित करने का मौका मिला। घर पहुँचते ही विट्ठलदास को पत्र लिखने बैठ गए। कपड़े उतारने की भी सुधि न रही–

प्रिय महाशय, नमस्ते!
आपको यह जानकर असीम आनंद होगा कि सुमन अब दालमंडी में एक कोठे पर विराजमान है। आपको स्मरण होगा कि होली के दिन वह अपने पति के भय से मेरे घर चली आई थी और मैंने सरल रीति से उसे उतने दिनों तक आश्रय देना उचित समझा, जब तक उसके पति का क्रोध न शान्त हो जाए। पर इसी बीच में मेरे कई मित्रों ने, जो मेरे स्वभाव से सर्वथा अपरिचित नहीं थे, मेरी उपेक्षा तथा निंदा करनी आरंभ की। यहां तक कि मैं उस अभागिन अबला को अपने घर से निकालने पर विवश हुआ और अंत में वह उसी पापकुंड में गिरी, जिसका मुझे भय था। अब आपको भली-भांति ज्ञात हो जाएगा कि इस दुर्घटना का उत्तरदायी कौन है, और मेरा उसे आश्रय देना उचित था या अनुचित।

भवदीय–
पद्मसिंह

बाबू विट्ठलदास शहर की सभी सार्वजनिक संस्थाओं के प्राण थे। उनकी सहायता के बिना कोई कार्य सिद्ध न होता था। पुरुषार्थ का पुतला इस भारी बोझ को प्रसन्नचित्त से उठाता, दब जाता था, किंतु हिम्मत न हारता था। भोजन करने का अवकाश न मिलता, घर पर बैठना नसीब न होता, स्त्री उनके स्नेहरहित व्यवहार की शिकायत किया करती। विट्ठलदास जाति-सेवा की धुन में अपने सुख और स्वार्थ को भूल गए थे। कहीं अनाथालय के लिए चंदा जमा करते फिरते हैं, कहीं दीन विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति का प्रबंध करने में दत्तचित्त हैं। जब जाति पर कोई संकट आ पड़ता, तो उनका देशप्रेम उमड़ पड़ता था। अकाल के समय सिर पर आटे का गट्ठर लादे गांव-गांव घूमते थे। हैजे और प्लेग के दिनों में उनका आत्मसमर्पण और विलक्षण त्याग देखकर आश्चर्य होता था। अभी पिछले दिनों जब गंगा में बाढ़ आ गई थी, तो महीनों घर की सूरत नहीं देखी, अपनी सारी संपत्ति देश पर अर्पण कर चुके थे, पर इसका तनिक भी अभिमान न था। उन्होंने उच्च शिक्षा नहीं पाई थी वाक्-शक्ति भी साधारण थी। उनके विचारों में बहुधा प्रौढ़ता और दूरदर्शिता का अभाव होता था। वह विशेष नीतिकुशल, चतुर या बुद्धिमान् न थे। पर उनमें देशानुराग का एक ऐसा गुण था, जो उन्हें सारे नगर में सर्वसम्मान्य बनाए था।

उन्होंने शर्माजी का पत्र पढ़ा, तो एक थप्पड़-सा मुंह पर लगा। उस पत्र में कितना व्यंग्य था, इसकी ओर उन्होंने कुछ ध्यान नहीं दिया। अपने एक परम मित्र को भ्रम में पड़कर कितना बदनाम किया, इसका भी उन्हें दुःख नहीं हुआ। वह बीती हुई बातों पर पछताना नहीं जानते थे। इस समय क्या करना चाहिए, इसका निश्चय करना आवश्यक था और उन्होंने तुरंत यह निश्चय कर लिया। वह दुविधा में पड़ने वाले मनुष्य न थे। कपड़े पहने और दालमंडी जा पहुंचे। सुमनबाई के मकान का पता लगाया, बेधड़क ऊपर गए और जाकर द्वार खटखटाया। हिरिया ने, जो सुमन की नायिका थी, द्वार खोल दिया।

नौ बजे गए थे। सुमन का मुजरा अभी समाप्त हुआ था। वह सोने जा रही थी। विट्ठलदास को देखकर चौंक पड़ी। उन्हें उसने कई बार शर्माजी के मकान पर देखा था। झिझककर खड़ी हो गई, सिर झुकाकर बोली– महाशय, आप इधर कैसे भूल पड़े?

विट्ठलदास सावधानी से कालीन पर बैठकर बोले– भूल तो नहीं पड़ा, जान-बूझकर आया हूं, पर जिस बात का किसी तरह विश्वास न आता था, वही देख रहा हूं। आज जब पद्मसिंह का पत्र मिला, तो मैंने समझा कि किसी ने उन्हें धोखा दिया है, पर अब अपनी आंखों को कैसे धोखा दूं? जब हमारी पूज्य ब्राह्मण महिलाएं ऐसे कलंकित मार्ग पर चलने लगीं, तो हमारे अधःपतन का अब पारावार नहीं है। सुमन, तुमने हिंदू जाति का सिर नीचा कर दिया।

सुमन ने गंभीर भाव से उत्तर दिया– आप ऐसा समझते होंगे, और तो कोई ऐसा नहीं समझता। अभी कई सज्जन यहां से मुजरा सुनकर गए हैं, सभी हिंदू थे, लेकिन किसी का सिर नीचा नहीं मालूम होता था। वह मेरे यहां आने से बहुत प्रसन्न थे। फिर इस मंडी में मैं ही एक ब्राह्मणी नहीं हूं, दो-चार का नाम तो मैं अभी ले सकती हूं, जो बहुत ऊंचे कुल की हैं, पर जब बिरादरी में अपना निबाह किसी तरह न देखा, तो विवश होकर यहां चली आईं। जब हिंदू जाति को खुद ही लाज नहीं है, तो फिर हम जैसी अबलाएं उसकी रक्षा कहां तक कर सकती हैं?

विट्ठलदास– सुमन, तुम सच कहती हो, बेशक हिंदू जाति अधोगति को पहुंच गई, और अब तक वह कभी की नष्ट हो गई होती, पर हिंदू स्त्रियों ही ने अभी तक उसकी मर्यादा की रक्षा की है। उन्हीं के सत्य और सुकीर्ति ने उसे बचाया है। केवल हिंदुओं की लाज रखने के लिए लाखों स्त्रियां आग में भस्म हो गई हैं। यही वह विलक्षण भूमि है, जहां स्त्रियां नाना प्रकार के कष्ट भोग कर, अपमान और निरादर सहकर पुरुषों की अमानुषीय क्रूरताओं को चित्त में न लाकर हिंदू जाति का मुख उज्जवल करती थीं। यह साधारण स्त्रियों का गुण था और ब्राह्मणियों का तो पूछना ही क्या? पर शोक है कि वही देवियां अब इस भांति मर्यादा का त्याग करने लगीं सुमन, मैं स्वीकार करता हूं कि तुमको घर पर बहुत कष्ट था। माना कि तुम्हारा पति दरिद्र था, क्रोधी था, चरित्रहीन था, माना कि उसने तुम्हें अपने घर से निकाल दिया था, लेकिन ब्राह्मणी अपनी जाति और कुल के नाम पर यह सब दुःख झेलती हैं। आपत्तियों का झेलना और दुरवस्था में स्थिर रहना, यही सच्ची ब्राह्मणियों का धर्म है, पर तुमने वह किया, जो नीच जाति की कुलटाएं किया करती हैं, पति से रूठकर मैके भागती हैं, और मैके में निबाह न हुआ, तो चकले की राह लेती हैं, सोचो तो कितने खेद की बात है कि जिस अवस्था में तुम्हारी लाखों बहनें हंसी-खुशी जीवन व्यतीत कर रही हैं, वही अवस्था तुम्हें इतनी असह्य हुई कि तुमने लोक-लाज, कुल-मर्यादा को लात मारकर कुपथ ग्रहण किया। क्या तुमने ऐसी स्त्रियां नहीं देखीं, जो तुमसे कहीं दीन-हीन, दरिद्र-दुःखी हैं? पर ऐसे कुविचार उनके पास नहीं फटकने पाते, नहीं तो आज यह स्वर्गभूमि नर्क के समान हो जाती। सुमन, तुम्हारे इस कर्म ने ब्राह्मण जाति का ही नहीं, समस्त हिंदू जाति का मस्तक नीचा कर दिया।

सुमन की आंखें सजल थीं। लज्जा से सिर न उठा सकी। विट्ठलदास फिर बोले– इसमें संदेह नहीं कि यहां तुम्हें भोग-विलास की सामग्रियां खूब मिलती हैं, तुम एक ऊंचे, सुसज्जित भवन में निवास करती हो, नर्म कालीनों पर बैठती हो, फूलों की सेज पर सोती हो, भांति-भांति के पदार्थ खाती हो! लेकिन सोचो तो तुमने यह सामग्रियां किन दामों मोल ली हैं? अपनी मान-मर्यादा बेचकर। तुम्हारा कितना आदर था, लोग तुम्हारी पदरज माथे पर चढाते थे, लेकिन आज तुम्हें देखना भी पाप समझा जाता है...

सुमन ने बात काटकर कहा– महाशय, यह आप क्या कहते हैं? मेरा तो यह अनुभव है कि जितना आदर मेरा अब हो रहा है, उसका शतांश भी तब नहीं होता था। एक बार मैं सेठ चिम्मनलाल के ठाकुरद्वारे में झूला देखने गई थी, सारी रात बाहर खड़ी भींगती रही, किसी ने भीतर न जाने दिया, लेकिन कल उसी ठाकुरद्वारे में मेरा गाना हुआ, तो ऐसा जान पड़ता था, मानो मेरे चरणों से वह मंदिर पवित्र हो गया।

विट्ठलदास-लेकिन तुमने यह सोचा है कि वह किस आचरण के लोग हैं?

सुमन– उनके आचरण चाहे जैसे हों, लेकिन वह काशी के हिंदू समाज के नेता अवश्य हैं। फिर उन्हीं पर क्या निर्भर है? मैं प्रातःकाल से संध्या तक हजारों मनुष्यों को इसी रास्ते आते-जाते देखती हूं। पढ़े-अपढ़, मूर्ख-विद्वान्, धनी-गरीब सभी नजर आते हैं, परन्तु सबको अपनी तरफ खुली या छिपी दृष्टि से ताकते हुए पाती हूं। उनमें कोई ऐसा नहीं मालूम होता, जो मेरी कृपादृष्टि पर हर्ष से मतवाला न हो जाए। इसे आप क्या कहते हैं? संभव है, शहर में दो-चार मनुष्य ऐसे हों, जो मेरा तिरस्कार करते हों। उनमें से एक आप हैं, उन्हीं में आपके मित्र पद्मसिंह हैं, किंतु जब संसार मेरा आदर करता है, तो इने-गिने मनुष्यों के तिरस्कार की मुझे क्या परवाह है? पद्मसिंह को भी जो चिढ़ है, वह मुझसे है, मेरी बिरादरी से नहीं। मैंने इन्हीं आंखों से उन्हें होली के दिन भोली से हंसते देखा था।

विट्ठलदास को कोई उत्तर न सूझता था। बुरे फंसे थे। सुमन ने फिर कहा– आप सोचते होंगे कि भोग-विलास की लालसा से कुमार्ग पर आई हूं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। मैं ऐसी अंधी नहीं कि भले-बुरे की पहचान न कर सकूं। मैं जानती हूं कि मैंने अत्यंत निकृष्ट कार्य किया है। लेकिन मैं विवश थी, इसके सिवा मेरे लिए और कोई रास्ता नहीं था। आप अगर सुन सकें तो मैं अपनी रामकहानी सुनाऊं। इतना तो आप जानते ही हैं कि संसार में सबकी प्रकृति एक-सी नहीं होती। कोई अपना अपमान सह सकता है, कोई नहीं सह सकता। मैं एक ऊंचे कुल की लड़की हूं। पिता की नादानी से मेरा विवाह एक दरिद्र मूर्ख मनुष्य से हुआ, लेकिन दरिद्र होने पर भी मुझसे अपना अपमान नहीं सहा जाता था। जिनका निरादर होना चाहिए, उनका आदर होते देखकर मेरे हृदय में कुवासनाएं उठने लगती थीं। मगर मैं इस आग में मन-ही-मन जलती थी। कभी अपने भावों को किसी से प्रकट नहीं किया। संभव था कि कालांतर में यह अग्नि आप-ही-आप शांत हो जाती, पर पद्मसिंह के जलसे ने इस अग्नि को भड़का दिया। इसके बाद मेरी जो दुर्गति हुई, वह आप जानते ही हैं। पद्मसिंह के घर से निकलकर मैं भोलीबाई की शरण में गई। मगर उस दशा में भी मैं इस कुमार्ग से भागती रही। मैंने चाहा कि कपड़े सीकर अपना निर्वाह करूं, पर दुष्टों ने मुझे ऐसा तंग किया कि अंत में मुझे कुएं में कूंदना पड़ा। यद्यपि काजल की कोठरी में आकर पवित्र रहना अत्यन्त कठिन है, पर मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि अपने सत्य की रक्षा करूंगी। गाऊंगी, नाचूंगी, पर अपने को भ्रष्ट न होने दूंगी।

विट्ठलदास– तुम्हारा यहां बैठना ही तुम्हें भ्रष्ट करने के लिए काफी है।

सुमन– तो फिर मैं और क्या कर सकती हूं, आप ही बताइए? मेरे लिए सुख से जीवन बिताने का और कौन-सा उपाय है?

विट्ठलदास– अगर तुम्हें यह आशा है कि यहां सुख से जीवन कटेगा, तो तुम्हारी बड़ी भूल है। यदि अभी नहीं तो थोड़े दिनों में तुम्हें अवश्य मालूम हो जाएगा कि यहां सुख नहीं है। सुख संतोष से प्राप्त होता है, विलास से सुख कभी नहीं मिल सकता।

सुमन– सुख न सही, यहां पर मेरा आदर तो है, मैं किसी की गुलाम तो नहीं हूं।

विट्ठलदास– यह भी तुम्हारी भूल है। तुम यहां चाहे और किसी की गुलाम न हो, पर अपनी इंद्रियों की गुलाम तो हो? इंद्रियों की गुलामी उस पराधीनता से कहीं दुःखदायिनी होती है। यहां तुम्हें न सुख मिलेगा, न आदर। हां, कुछ दिनों भोग-विलास कर लोगी, पर अंत में इससे भी हाथ धोना पड़ेगा। सोचो तो, थोड़े दिनों तक इंद्रियों को सुख देने के लिए तुम अपनी आत्मा और समाज पर कितना बड़ा अन्याय कर रही हो?

सुमन ने आज तक किसी से ऐसी बातें नहीं सुनी थीं। वह इंद्रियों के सुख को, अपने आदर को जीवन का मुख्य उद्देश्य समझती थी। उसे आज मालूम हुआ कि सुख, संतोष से प्राप्त होता है और आदर सेवा से।

उसने कहा– मैं सुख और आदर दोनों ही को छोड़ती हूं, पर जीवन निर्वाह का तो कुछ उपाय करना पड़ेगा?

विट्ठलदास– अगर ईश्वर तुम्हें सुबुद्धि दें, तो सामान्य रीति से जीवन-निर्वाह करने के लिए तुम्हें दालमंडी में बैठने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे जीवन-निर्वाह का केवल यही एक उपाय नहीं है। ऐसे कितने धंधे हैं, जो तुम अपने घर में बैठी हुई कर सकती हो।

सुमन का मन अब कोई बहाना न ढूंढ़ सका। विट्ठलदास के सदुत्साह ने उसे वशीभूत कर लिया। सच्चे आदमी को हम धोखा नहीं दे सकते। उसकी सचाई हमारे हृदय में उच्च भावों को जागृत कर देती है। उसने कहा– मुझे यहां बैठते स्वतःलज्जा आती है। बताइए, आप मेरे लिए क्या प्रबंध कर सकते हैं? मैं गाने में निपुण हूं। गाना सिखाने का काम कर सकती हूं।

विट्ठलदास– ऐसी तो यहां कोई पाठशाला नहीं है।

सुमन– मैंने कुछ विद्या भी पढ़ी है, कन्याओं को अच्छी तरह पढ़ा सकती हूं।

विट्ठलदास ने चिंतित भाव से उत्तर दिया– कन्या पाठशालाएं तो कई हैं, पर तुम्हें लोग स्वीकार करेंगे, इसमें संदेह है।

सुमन– तो आप मुझसे क्या करने को कहते हैं? कोई ऐसा हिंदू जाति का प्रेमी है, जो मेरे लिए पचास रुपए मासिक देने पर राजी हो?

विट्ठलदास– यह तो मुश्किल है।

सुमन– तो क्या आप मुझसे चक्की पिसाना चाहते हैं? मैं ऐसी संतोषी नहीं हूं।

विट्ठलदास-(झेंपकर) विधवाश्रम में रहना चाहो, तो उसका प्रबंध कर दिया जाए।

सुमन– (सोचकर) तो मुझे यह भी मंजूर है, पर वहां मैंने स्त्रियों को अपने संबंध में कानाफूसी करते देखा तो पल-भर न ठहरूंगी।

विट्ठलदास– यह तो टेढ़ी शर्त है, मैं किस-किसकी जबान को रोकूंगा? लेकिन मेरी समझ में सभावाले तुम्हें लेने पर राजी न होंगे।

सुमन ने ताने से कहा– तो जब आपकी हिंदू जाति इतनी हृदयशून्य है, तो मैं उसकी मर्यादा पालने के लिए क्यों कष्ट भोगूं, क्यों जान दूं? जब आप मुझे अपनाने के लिए जाति को प्रेरित नहीं कर सकते, जब जाति आप ही लज्जाहीन है, तो मेरा क्या दोष है? मैं आपसे केवल एक प्रस्ताव और करूंगी और यदि आप उसे भी पूरा न कर सकेंगे, तो फिर मैं आपको और कष्ट न दूंगी। आप पं० पद्मसिंह को एक घंटे के लिए मेरे पास बुला लाइए, मैं उनसे एकांत में कुछ कहना चाहती हूं। उसी घड़ी मैं यहां से चली जाऊंगी। मैं केवल यह देखना चाहती हूं कि जिन्हें आप जाति के नेता कहते हैं, उनकी दृष्टि में मेरे पश्चात्ताप का कितना मूल्य है।

विट्ठलदास खुश होकर बोले– हां, यह मैं कर सकता हूं। बोलो, किस दिन?

सुमन– जब आपका जी चाहे।

विट्ठलदास– फिर तो न जाओगी?

सुमन– अभी इतनी नीच नहीं हुई हूं।

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